Gusainji
Gusainji
Prabhucharan Shri Vithalnathji Shri Gusaiji | |
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Shri Vithalnathji Shri Gusaiji | |
Born |
1572 Charanat. Near Varanasi, UP, India |
Era | Ancient philosophy |
Region | Indian philosophy |
School | Hindu philosophy, Shuddhadvaita, Pushtimarg, Vedanta |
Gusaiji was the younger son of ]]. His real name was Vitthalnath. He was born in 1516 at Charnat near Varanasi.[1] Gusaiji as Vithalnathji is mentioned in Hindu scriptures as follows: In Agni Purana, in a chapter titled "Bhavishiyotar" (Future Avatar (birth)), God himself professed that: "In future I will come as son of Shree Vallabh and I will be known as Shree Vithal."
Gusaiji led the sect Pushtimarg, the sect founded by his father after the latter's death. Based on the order of Shrinathji (Krishna's image currently residing in Nathdwara near Udaipur), Gusainji included variation of Bhog (feasts & meals), Raag (music) and Shringaar (adorations) into the seva (day to day services) of Shrinathji. He was also the head of pustimargiya sanghatan i.e.the head of the temple trust(श्रीनाथजी).
श्रीगुसांईजी का विस्तृत परिचय श्री गोपीनाथजी के प्राकट्यानन्तर श्रीमद्आचार्यचरण ने अडैल में विराजकर 3 सोमयज्ञ किये। तत्पश्चात पांडुरंग श्रीविट्ठलनाथजी द्वारा पूर्व में हुई श्रीनाथजी की आज्ञानुसार प्रभु प्राकट्य का समय निकट जानकर पुराणों में जिसे आधिदैविक वृन्दावन कहा है ऐसे चरणाट क्षेत्र में आपने निवास किया। स्वगृह में वि.सं. 1572 (व्रज) मि. पौष कृष्णा-9 शुक्रवार को मध्यान्ह के समय हस्त नक्षत्र षोभनयोग तथा 21 घड़ी एवं 25 पल के समय आपश्रीविट्ठलनाथजी का प्राकट्य हुआ। जिस स्थान पर आपश्री का प्राकट्य हुआ वह स्थान काशी के समीप स्थित चरणाद्रि (चरणाट) नामक स्थान है। जिसे चुनार भी कहा जाता है। यह स्थल सुरसरिता गंगाजी के तट पर स्थित है। यहाँ पर पूर्व भाग की और सुन्दर विन्ध्यावली स्थित है। श्री बैठकजी के सन्मुख कमल सरोवर है। पृष्ठ भाग में भी उद्यान एवं सरोवर स्थित है। श्रीगुसांईजी का नाम श्रीविट्ठलनाथजी है। विट्ठल शब्द का अर्थ ‘विदा ज्ञानेन ठान् शून्यान् लाति स्वीकरोति सः विट्ठलः’ जो ज्ञान शून्य जीवों को कृपापूर्वक भगवद् ज्ञान देकर शरण में लेते हैं वो विट्ठल हैं। पान्डुरंग श्रीविट्ठलनाथजी के स्वरूप से आपश्री का साक्षात् …………होने से भी आपश्री का नामकरण ‘विट्ठल’ किया गया। आपश्री का श्रीगुसांईजी नाम सम्राट अकबर ने आपश्री को ‘उपाधि’ प्रदान की थी इसलिये हुआ। वैसे शुद्ध पद ‘‘गोस्वामी“ है। अर्थात् समस्त इन्द्रियों के स्वामी (नियन्ता) माने आत्मस्वरूप परब्रह्म अन्तर्यामी परमात्मा। श्रीगुसांईजी के केवल एक बड़े भ्राता श्री गोपीनाथजी थे। चरणाट की बैठक में आपश्री का प्राकट्य होने के बाद वहीं छट्ठी का पूजन हुआ तब आपश्री ने केवल कटाक्ष द्वारा लक्षावधि जीवों को अंगीकार किया। तत्पश्चात् एक मास बाद जब गंगा पूजन हुआ तब गंगाजी स्वतः बढ़ी और अक्काजी की गोद में विराजमान आपश्री के चरण का स्पर्श करने के बाद ही पुनः घटी। तब श्रीगंगाजी ने श्री अक्काजी से कहा ण्कि आप तो परम भाग्यशाली हैं, आपके पति एवं पुत्रदोनों पूर्णपुरुषोत्तम हैं। तब ही आपश्री का नामकरण श्रीविट्ठलनाथजी हुआ। आपश्री का यज्ञोपवीत श्रीवल्लभाचार्यजी द्वारा काशी में वि.सं. 1580 मि. चैत्र शु.9 के दिन शास्त्रीय विधि विधानानुसार कुल परम्परानुकूल सम्पन्न हुआ। श्रीगुसांईजी का विद्याध्ययन तत्कालीन प्रकांड विद्वान् माधव सरस्वती के पास प्रयाग में हुआ था। आप सरस्वतीजी से जो अध्ययन करते थे उसे एक ही बार में पूरा का पूरा धारण कर लेते थे। यहाँ तक कि आपश्री अपनी अध्ययन की पुस्तकें भी वहीं छोड़कर घर पधार जाते थे। श्रीगुसांईजी के दो विवाह हुए। आपश्री का प्रथम विवाह ज्येष्ठ भ्राता श्रीगोपीनाथजी के संरक्षकत्त्व में वि.सं. 1589 में काशी में बागरोदी विश्वनाथ भट्ट की सुपुत्री श्री रुक्मिणीजी से हुआ। आपश्री का द्वितीय विवाह वि.सं. 1620 के वैशाख शु. 3 को गढ़ा, जबलपुर (म.प्र.) में श्री पद्मावतीजी से सम्पन्न हुआ। कुछ इतिहासज्ञ वि.सं. 1624 के मध्य शु. 5 भी मानते हैं। श्री गुसंाईजी के प्रथम बहुजी से 10 सन्तानें हुईं। जिसमें 6 पुत्र तथा 4 पुत्रियाँ हुईं जिनके नाम निम्नलिखित हैं - प्रथम पुत्र श्रीगिरधरजी प्रा् वि.सं. 1597 द्वितीय ,, श्रीगोविन्दरायजी ,, 1599 तृतीय ,, श्रीबालकृष्णजी ,, 1606 चतुर्थ ,, श्रीगोकुलनाथजी ,, 1608 पंचम ,, श्रीरघुनाथजी ,, 1611 षष्ठ ,, श्रीयदुनाथजी ,, 1615 तथा चार पुत्रियाँ - प्रथम पुत्री श्रीशोभाजी ,, 1595 द्वितीय ,, श्रीकमलाजी ,, 1601 तृतीय ,, श्रीदेवकीजी ,, 1603 चतुर्थ ,, श्री यमुनाजी ,, 1613 श्रीगुसांईजी के द्वितीय बहुजी को एकमात्र पुत्र्, सप्तम पुत्र- श्रीघनश्यामजी प्रा.वि.सं. 1628। जिस समय श्रीमहाप्रभुजी लीला में पधारे तब श्रीगुसांईजी की आयु केवल 15 वर्ष की थी। श्रीगुसांईजी को पुष्टिमार्ग की रीति समझाने वाले प.भ. श्री दामोदरदासजी हरसानी एवं प.भ. श्री पद्मनाभदासजी थे। ये दोनों श्रीवल्लभाचार्यजी के सेवक थे। श्रीगुसांईजी को खेलते समय दामोदरदास हरसानीजी ने कहा, ‘‘जै राज, यह मार्ग हांसि खेल को नाहीं है, ये ते ताप क्लेश सहन करवे को है“ ऐसा कहा था। इस शिक्षा से श्रीगुसांईजी ने खेलना छोड़ दिया और शास्त्रों का अध्ययन (अभ्यास) करने लगे। श्रीमहाप्रभुजी ने इस पुष्टिमार्ग का प्राकट्य अवश्य किया परन्तु बाद में आपश्री के प्रत्येक बाकी रहे कार्य को श्रीगुसांईजी ने ही पूर्ण किया। पुष्टिमार्ग के प्रचार-प्रसार, चतुर्दिक उत्थान आदि समस्त कार्यों में श्रीगुसांईजी का योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आपश्री को ‘अनेक क्षितिपश्रेणी मूर्धासक्त पदाम्बुज’ का जो खिताब मिला उसका अर्थ ‘अनेक राजाओ कतारबद्ध के मस्तको द्वारा सेवित है चरण कमल जिसका।’ श्रीविट्ठलनाथजी के निज स्वरूप श्रीनवनीतप्रियाजी (लालन) हैं। श्रीविट्ठलनाथजी ने अपने सात पुत्रोंको 7 स्वरूप पधराये 1) श्रीगिरिधरजी को श्रीमथुराधीशजी 2) श्रीगोविन्दरायजी को श्रीविट्ठलनाथजी 3) श्रीबालकृष्णजी को श्रीद्वारिकाधीशजी 4) श्रीगोकुलनाथजी को श्रीगोकुलनाथजी 5) श्रीरघुनाथजी को श्रीगोकुलचन्द्र माजी 6) श्रीयदुनाथजी को श्रीगुसांईजी ने श्रीबालकृष्णलालजी पधराने का विचार किया, परन्तु उन्होने उन स्वरूप को स्वीकार नहीं किया। अतः आपको कोई भी स्वरूप की प्राप्ति श्रीगुसांईजी के समय नहीं हुई। 7) श्रीघनश्यामजी के श्रीमदनमोहनजी श्रीगुसांईजी कुल 6 बार गुजरात पधारे। 1) वि.सं. 1600 के आसपास अड़ैल से आपश्री गुजरात पधारे। 2) वि.सं. 1613 में भी अड़ैल से ही आपश्री गुजरात पधारे। 3) वि.सं. 1619/1620 में गढ़ा (म.प्र.) से आपश्री गुजरात पधारे। 4) वि.सं. 1623 में मथुरा से आपश्री गुजरात पधारे। इस यात्रा के अन्तर्गत मथुरा से गुजरात होते हुए दक्षिण की यात्रा पर भी पधारे। 5) वि.सं. 1631 में गोकुल से आपश्री गुजरात पधारे। 6) वि.सं. 1638 में आपश्री गोकुल से गोवर्धनहोते हुए गुजरात पधारे। श्रीगुसांईजी के रचित कई ग्रंथ हैं। जिनमें मुख्य - 1) विद्धन्मण्डन, 2) भक्ति हेतु निर्णय, 3) भक्तिहंस, 4) श्रृंगार रसमण्डन, 5) अष्टाक्षर निरूपण, 6) रस सर्वस्व, 7) प्रबोध, 8) गुप्तरस, 9) अणुभाष्य (डेढ़ अध्याय), 10) श्रीमती टिप्पणी, 11) व्रतचर्या, 12) सर्वोत्तमस्तोत्र, 13) वल्लभाष्टक, 14) स्फुरत्कृष्ण प्रेमामृत, 15) श्रीयमुना अष्टपदी इत्यादि। श्रीगुसांईजी ने अष्टसखा की स्थापना की। उसकी स्थापना का समय सम्भवतः वि.सं. 1602 है। अष्टछाप कीर्तनकारों के नाम – 1) श्रीसूरदासजी, 2) श्रीकुम्भनदासजी, 3) श्रीपरमानन्ददासजी, 4) श्रीकृष्णदासजी ये चारोश्रीवल्लभाचार्यजी के सेवक थे। 5) श्रीगोविन्दस्वामी, 6) श्रीनन्ददासजी, 7) श्रीछीतस्वामी, 8) श्रीचतुर्भुजदासजी ये चारोश्रीविट्ठलनाथजी के सेवक थे। श्रीगुसांईजी ने मातृचरण की इच्छा से एवं आज्ञा से सपरिकर जन्माष्टमी उत्सव के बाद मथुरा विश्रांत घाट पर वि.सं. 1600 के.मि.भा.कृ/शु. 12 के दिन नियम लेकर वनयात्रार्थ प्रथम मघुवन प्रस्थान किया। मथुरा क्षेत्र के तीर्थ पुरोहित के रूप में श्री उजागर शर्मा (चतुर्वेदः) को आपश्री ने लेखपत्र लिखकर मान्यता प्रदान किया। वि.सं. 1623 के आसपास जब श्रीगुसांईजी अहमदाबाद (गुजरात) पधारे तब आपश्री ने गोपाल दास जो भाईला कोठारी के जामाता थे। ये जन्मतः गूंगे थे। उनके ऊपर कृपा करके अपने श्रीमुख का चर्वित पान इनको दिया जिससे इनकी वाणी प्रकट हुई और गोपाल दासजी ने गुजराती भाषा में ‘वल्लभाख्यान’ नामक एक वृहद् सुन्दर ग्रन्थ की रचना किया। श्रीगुसांईजी वि.सं. 1616 के अन्त में जब जगदीश पधारे तब वहाँ से एक कुशल बढ़ई को साथ अडै़ल लाये और नूतन रथ सिद्ध करवाकर श्रीनवनीतलालजी को रथ में पधराकर रथयात्रा उत्सव का प्रारम्भ किया। श्रीगुसांईजी कृत दो सोमयज्ञ का कुछ वर्णन प्राप्त होता है। सम्भवतः वि.सं. 1592 में प्रथम सोमयज्ञ अड़ैल में हुआ। द्वितीय सोमयज्ञ वि.सं. 1610 में मगध देश से लौटने पर चरणाट में आपश्री द्वारा सम्पन्न हुआ। श्रीगुसांईजी ने श्रीमद्भागवत का अध्ययन अपने पिता श्री वल्लभाचार्यचरण से अड़ैल में किया। आपने अपने दसवें वर्ष में सर्वप्रथम ‘‘राजभोग आर्या“, ‘‘व्रजराज विराजित घोषवरे“ की रचना करके श्रीमहाप्रभु को सुनाया था। आपको बाल्यकाल से ही संगीत का ज्ञान था एवं संगीत की सम्पूर्ण विधाओ में आप निपुण थे, परन्तु विशेष रूप से आप वीणा वादन करते थे। वीणा बजाने से हाथ की अंगुलियों में गड्ढे हो जाते हैं जिससे प्रभु सेवा में प्रभु को श्रम होता है, अतः आपने श्रीमहाप्रभुजी की आज्ञा से वीणा बजाना छोड़ दिया। श्रीगुसांईजी संस्कृत एवं ब्रजभाषा दोनों में रचनाएं करते थे। इन दोनों भाषाओ पर आपका समान अधिकार था। आपने ब्रजभाषामें भी कुछ रचनाएं की है इनमें अपनी छाप आपश्री ‘‘ललिता“, ‘‘सहज प्रीति“ आदि रखते थे। भगवत् सेवा श्रृंगार का विस्तार श्रीगुसांईजी ने किया। श्रीवल्लभाचार्यजी के समय में तो सम्भवतः पाग, मोर, चन्द्रिका, मुकुट कुलहे आदि प्रकार था जिसका विस्तार श्रीगुसांईजी ने श्रीगोवर्धननाथजी की दान, मान, रास आदि लीलानुसार किया जिसमें टिपारा, सेहेरा, दुमाला, पगा, फेंटा, आदि प्रकार हैं। श्रीगुसांईजी साहित्य संगीत कला इन तीनों विषयों के पूर्ण ज्ञाता थे। आपकी संस्कृत भाषाअति प्रौढ़ थी। आपकी रचनाओं में ‘अलंकार’ उपमा-उपमेंय पद लालित्य आदि परिपूर्ण होते थे। आपश्री ने पाककला, चित्रकला, संगीतकला, साहित्यकला आदि सम्पूर्ण विधाओ का भगवत सेवा में युक्ति युक्त विनियोग करवाया। श्रीगुसांईजी के स्वरचित दो चित्र सम्प्रदाय में प्रसिद्ध हैं। (1) श्री नवनीत प्रियाजी का चित्र जो कोटा राजस्थान में विराजमान है। (2) आपका अपना स्वयं का चित्र जिसकी रचना आपके पंचम पुत्र श्रीरघुनाथजी के लिए चित्र बना। भगवत्सेवा भोग राग-श्रृंगार आदि का विस्तार भगवद् आज्ञानुसार आपश्री ने वि.सं. 1602 में किया। श्रीगुसांईजी को श्रीनाथजी की सेवा से कृष्णदास अधिकारी ने दूर किया। कुछ अपरिहार्य कारणों से परन्तु वस्तुतः भगवत् इच्छा से ही आपश्री को विप्रयोग की प्राप्ति हुई। वहाँ से आप श्रीनाथजी को विज्ञप्ति के श्लोक लिखकर श्रीनाथजी के मुखिया रामदासजी के माध्यम से भेजते थे। वो समय वि.सं. 1605 की मि. पौष शु. 6 से वि.सं. 1606 की मि. आषाढ़ शु. 5 तक 6 महीने तक रहा। इस समय श्रीगुसांईजी अन्न जल का त्याग करके 6 माह तक चन्द्रसरोवर परासोली विराजे। इसी समय में आपने श्रीमद्भागवत पारायण किया था तथा दामोदरदास हरसानी से श्रीआचार्यजी की प्राकट्य वार्ता एवं रहस्य लीला आदि भी श्रवण किया। श्रीगुसांईजी के विप्रयोग के 6 मास व्यतीत होने पर जब कृष्णदास अधिकारी ने अपनी निषेधाज्ञा नहीं हटाया, तब श्रीगुसांईजी के ज्येष्ठ पुत्रश्रीगिरिधरजी ने मथुरा के हाकिम को इसकी फरियाद करके कृष्णदास को गिरफ्तार करवाकर कारावास में बन्द करवाया और श्रीगुसांईजी को मन्दिर प्रवेश का आदेश करवाया। जब श्रीगिरिधरजी इस राजकीय आदेश को लेकरपरासोली गये तब श्रीगुसांईजी ने कहा, जब तक कृष्णदास कारागार से मुक्त नहीं होंगेतब तक हम अन्न जल ग्रहण नहीं करेंगे। आपकी इस क्षमाशीलता और प्रतिज्ञा के कारण कृष्णदास को कारागार से मुक्ति मिली और वे श्रीगुसांईजी से अत्यन्त प्रभावित हुए। उन्हें अपने कृत्य पर पश्चात्ताप हुआ। उन्होने क्षमा याचना करके श्रीगुसांईजी को मंदिर में पधराया और उनके अनन्य भक्त हो गये। श्रीगुसांईजी का विप्रयोग आषाढ़ शु. 6 को निवृत्त हुआ। यह दिन श्रीनाथजी और आपका मिलन आज भी पुष्टिमार्ग में ‘कुसुमी छठ’ के उत्सव रूप में मनाया जाता है। वि.सं. 1610 में आपश्री ने मगध देश की यात्रा किया और सम्प्रदाय का प्रचार भी किया। वि.सं. 1616 में आपश्री गौड़ देश भी पधारे थे। वहाँ के राजा के प्रधान नारायणदास दीवान को आपश्री ने शरण लिया। उसी समय आप जगदीश पधारे तब आपके साथ श्री रुक्मिणी बहुजी, प्रथम पुत्रश्रीगिरिधरजी और श्रीशोभा बेटीजी रहे। वि.सं. 1626 में आपश्री हरिद्वार पधारे तथा माधवदास आदि वैष्णवों को शरण लिया। वहाँ से बद्रिकाश्रम पधारे वैसे तो श्रीगुसांईजी आगरा, दिल्ली पधारते रहते थे। वि.सं. 1634 एवं वि.सं. 1638 में आपश्री बादशाह अकबर की विनती पर वहाँ पधारे। धार्मिक सभाओ में भाग लिया। आपश्री ने दिल्ली में सूरत के साहूकार की पुत्रवधू का अकबर बादशाह के विनती करने पर न्याय किया। उससे संतुष्ट होकर बादशाह अकबर ने आपश्री को न्यायाधीश की पदवी दी। इन ऐतिहासिक प्रवासों में राय पुरुषोत्तमदास, राजा बीरबल, राजा टोडरमल, सम्राट अकबर की रानी ताज, बीरबल की पुत्री शोभावती आदि कई राजकीय पुरुष आपके सेवक हुए। आपश्री का मथुरा एवं ब्रज (गोकुल में) स्थायी निवास लगभग वि.सं. 1619 के बाद हुआ। सम्भवतः प्रथम बहुजी का लीला प्रवेश वि.सं. 1616 के पश्चात् अड़ैल में ही हुआ था। उसी के बाद जब आपश्री रानी दुर्गावती की राजधानी गढ़ा पधारे तब उसी के अति आग्रह के कारण वि.सं. 1620 मि. वै.शु. 3 के दिन आपश्री का द्वितीय विवाह सजातीय तैलंग भट्ट की सुपुत्री पद्मावतीजी से हुआ। वि.सं. 1621 में रानी दुर्गावती का मुगल सम्राट अकबर से भीषण युद्ध की आषंका से आपश्री अड़ैल होते हुए मथुरा पधारे। वि.सं. 1623 में मथुरा में रानी दुर्गावती द्वारा निर्मित एक विशाल भवन में आपने सपरिवार निवास किया। यह भवन सतघरा के नाम से प्रसिद्ध है। रानी दुर्गावती ने इस भवन में श्रीविट्ठलनाथजी एवं उनके 6 पुत्रोंके लिए 7 धर बनवाये थे। इसी कारण इसे सतघरा कहा जाता है। वि.सं. 1627 में आपश्री स्थायी रूप से गोकुल विराजे। श्रीमद् गोकुल का प्राकट्य तो श्रीमहाप्रभुजी ने कराया और उसका निर्माण श्रीगुसांईजी ने करवाया। श्रीमहाप्रभुजी के सेवक यादवेन्द्रदास कुम्हार ने अकेले ही श्रीगुसांईजी की आज्ञा का बल प्राप्त करके वि.सं. 1627 मि.फा.कृ.7 को डेढ़ प्रहर रात्रि गये मन्दिर की नींव खोदी थी। श्रीगुसांईजी के 6 लालजी का प्राकट्य तो प्रयाग अड़ैल में हुआ था परन्तु सप्तम लालजी घनश्यामजी का प्राकट्य वि.सं. 1628 मि. मार्ग.कृ. 13 को यहीं गोकुल में हुआ। कुछ इतिहासकार सतघरा मथुरा में भी मानते हैं। श्रीगुसांईजी के प्रभाव से अकबर ने वि.सं. 1620 में तीर्थयात्रा कर तथा वि.सं. 1621 में जजिया कर समाप्त कर दिया था। एकादशी के दिन पूरे साम्राज्य में गोवध निषेध था। आपश्री का विशेष नियम यह था कि आप नित्य प्रति किसी भी एक जीव को शरण लेने के बाद ही भो जन ग्रहण करते थे। एक बार जब कोई जीव (व्यक्ति) शरण होने नहीं आया तो आपने उस दिन एक कबूतर तथा कबूतरी को शरण लेकर दीक्षा प्रदान कर अद्भुत चरित्र प्रकट किया। श्रीगुसांईजी के अपूर्व त्याग, महोदारता, अत्यन्त दयालुता एवं समभाव, परोपकारिता, व्यवहारकुशलता, भगवद् अनुराग के अनेक उदाहरण हैं। श्रीगुसांईजी के समय में लगभग दो छप्पन भोग मनोरथ का प्रकार मिलता है। एक छप्पन भोग वि.सं. 1615 में श्री जी में तथा एक वि.सं. 1640 में श्रीनवनीत प्रियाजी में हुआ था। आपश्री के जीवन चरित्र का अवलोकन करने पर लगभग 40 वर्ष तक आप भारत में परिभ्रमण कर पुष्टिमार्ग का सतत प्रचार करते रहे, ये मालूम होता है। आपश्री एक धर्माचार्य होने के साथ प्रकाण्ड विद्वान थे। आपश्री का अधिकार समग्र विद्याओ पर समान रूप से था। आपश्री उच्चकोटि के कलाकार, संगीतकार, चित्रकार,व कवि थे। आपश्री का लीला प्रवेश वि.सं. 1642 मि.फा./माघ कृ. 7 के दिन संध्या समय में हुआ। इस विषय में इतिहासकारों में मतभेद प्राप्त है। कुछ इतिहासकार आपश्री का तिरोधान का वर्ष वि.सं. 1644 मानते हैं तो कुछ 46/51/55/90 तक भी कहते हैं। परन्तु प्रामाणिक रूप से वि.सं. 1642 ही प्राप्त होता है अथवा 44 तक माना जा सकता है। श्रीगुसांईजी श्रीगिरिराजजी मुखारविन्द के निकट स्थित गिरिकन्दरा में सदेह पधारे और श्रीनाथजी के स्वरूप में लीन हो गये। इस तरह लीला प्रवेश किया। आपश्री के साथ लीला में अष्ट सखाओ में से प्रथम श्रीगोविन्दस्वामी भी सदेह आपश्री के साथ गये। श्रीगुसांईजी ने लीला प्रवेश के समय अपने प्रथम ज्येष्ठ पुत्र श्रीगिरिधरजी को अपना उपवस्त्र (उपरणा) देकर आज्ञा किया कि सम्पूर्ण अन्त्य वैदिक संस्कार इसके करोगे। आपश्री ने अपनी माला उतारकर लालजी श्रीगोकुलनाथजी को पहनाया। श्रीवल्लभाचार्यचरण की ही तरह आपश्री ने भी अपने तिरोधान के पूर्व अपने सब पुत्रोंको श्रीनाथजी के सन्मुख खड़ा करके उनसे कहा कि यह अपने कुलदेवता हैं। इनको पीठ मत देना। इनको पीठ दोगे तो काल तुम्हारा भक्षण कर जावेगा। ये श्रीगुसांईजी की अन्तिम आज्ञा (उपदेश) थी। सम्प्रदायकल्पद्रुम ग्रन्थ के आधार से कहें तो आपश्री के 7 पुत्रऔर 17 पौत्र तथा 4 पुत्रियाँ एक श्रीगोपीनाथजी की 2 पुत्रियाँ थीं। इस प्रकार से श्रीविट्ठलनाथजी श्रीगुसांईजी के लीला प्रवेश के समय आपश्री का परिवार सम्पूर्ण फल फलित भरापूरा था। श्रीगुसांईजी के सात बालको के उपनाम और उनके बहुजी का नाम - 7 बालक उपनाम बहुजी के नाम 1) श्रीगिरिधरजी श्रीगोवर्धन श्रीभामिनीजी 2) श्रीगोविन्दरायजी श्रीराजाजी श्रीराणीजी 3) श्रीबालकृष्णजी श्रीराजीवलोचनजी श्रीकमलाजी 4) श्रीगोकुलनाथजी श्रीवल्लभ श्रीपार्वतीजी 5) श्रीरघुनाथजी श्रीरामचन्द्रजी श्रीजानकीजी 6) श्रीयदुनाथजी श्रीमहाराजजी श्रीमहारानीजी 7) श्रीघनश्यामजी श्रीप्राणवल्लभजी श्रीकृष्णावतीजी श्रीगुसांईजी की बैठकें पूरे भारतवर्ष में 28 हैं - श्रीमद्गोकुल = 2 वृन्दावन = 1 राधाकृष्ण कुण्ड = 1 चन्द्रसरोवर = 2 गोपाल पुरा (जतीपुरा) = 1 कामवन = 2 संकेत वन = 1 रीठौरा = 1 करहला = 1 कोटवन = 1 चीरघाट = 1 वत्सवन = 1 15 (ये समस्त बैठकें ब्रजमण्डल की हैं।) बेलवन = 1 चरणाट (काशी) = 1 अड़ैल (प्रयाग) = 1 गौड़ देश की बैठक = 1 सोरम क्षेत्र = 1 गोधरा (गु.) = 1 अलीआणा (गु.) = 1 असारवा (अहमदाबाद) = 1 खम्भात = 1 नवानगर = 1 गांगा गुरगुट = 1 द्वारिका = 2
कुल योग – = 28
श्रीगुसांईजी के जीवनकाल की प्रमुख घटनाओ का संवत् के साथ उल्लेख - वि.सं. 1572 जन्म, नामकरण तथा अन्नप्राशन 1580 उपनयन संस्कार 1581 ब्रह्म विद्याध्ययन 1582 काव्य सृजन प्रतिमा का विकास 1589 प्रथम विवाह 1592 ब्रह्म संबंध दीक्षा दिया - (1) गोविन्द स्वामी (2) छीतस्वामी ‘1593 हरसानीजी से लीला भावना की जानकारी 1598 चतुर्भुजदास को ब्रह्मसंबंध दीक्षा दी 1600 प्रथम ब्रजयात्रा 1602 (लगभग) अष्टछाप स्थापना 1607 श्रीनन्ददास को ब्रह्मसंबंध दीक्षा दी 1610 मगध देश यात्रा 1616 जगन्नाथपुरी यात्रा 1616 (लगभग) प्रथम बहुजी का लीला प्रवेश 1620 द्वितीय विवाह 1621 जतीपुरा में गौशाला स्थापना 1622 श्रीनाथजी सतघरा, मथुरा पधारे 1627 गोकुल भूमि का अधिग्रहण 1629 धोंधी को कीर्तन सेवा 1634 बादशाह के द्वारा सम्मान-फरमानों द्वारा 1635 सूरत साहुकार बहू को न्याय देना एवं न्यायाधीष की पदवी प्राप्त करना। 1635 एवं 1640 के मध्य अपने पुत्रोंका बंटवारा। 1642 लीला प्रवेश विश्व के धर्माचार्य में श्रीगुसांईजी जैसे विशाल एवं विलक्षण व्यक्तित्व शायद ही कोई हो ‘‘न भूतो न भविष्यति“। श्रीगुसांईजी के काल को ही पुष्टिमार्ग का स्वर्णयुग निःसंदेह कहेंगे।
References
- ↑ "Shri Vithalnathji". on Nathdwara Website's. Retrieved 2007-09-16. External link in
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